- मेष मंगल मूंगा
- वृष शुक्र हीरा
- मिथुन बुध पन्ना
- कर्क चन्द्र मोती
- सिंह सूर्य सोना - माणिक
- कन्या बुध पन्ना
- तुला शुक्र हीरा
- वृश्चिक मंगल मूंगा
- धनु बृहस्पति पुखराज
- मकर शनि नीलम , लोहा
- कुम्भ शनि नीलम , लोहा
- मीन बृहस्पति पुखराज
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शुक्रवार, 15 जुलाई 2011
-10----लग्न--लग्नेश कीमती पत्थर कीमती पत्थर कीमती पत्थर कीमती पत्थर
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
8-- ग्रहों की मित्रता
ग्रहों की मित्रता
सूर्य _ चन्द्र , मंगल और गुरु
सूर्य _ चन्द्र , मंगल और गुरु
चन्द्र _ सूर्य और बुध
मंगल _ सूर्य , चन्द्र और गुरु
बुध _ सूर्य , शुक्र और राहु
गुरु _ सूर्य , चन्द्र और मंगल
शुक्र _ बुध , शनि और राहु
शनि __ बुध , शुक्र और राहु
राहु __ बुध , शुक्र और शनि
केतु __ सूर्य , बुध , शुक्र और शनि
ग्रहों की शत्रुता
सूर्य __ शुक्र , शनि और राहु
सूर्य __ शुक्र , शनि और राहु
चन्द्र __ राहु और केतु
मंगल __ बुध , राहु
बुध __ चन्द्र और गुरु
गुरु ___ बुध और शुक्र
शुक्र __ सूर्य - चन्द्र
शनि __ सूर्य , चन्द्र और मंगल
राहु __ सूर्य , चन्द्र और मंगल
केतु __ सूर्य , चन्द्र और मंगल
ग्रहों का सम - भाव
सूर्य __ बुध
चन्द्र __ मंगल , गुरु , शुक्र और शनि
मंगल ___ शुक्र और शनि
बुध __ मंगल और शनि
गुरु __ राहु और शनि
शुक्र ___ मंगल और गुरु
शनि ___ गुरु
राहु __ गुरु
केतु ___ गुरु
7-- भाव - सार
प्रथम भाव इसे जन्म-भाव
इसमें वह राशि होती है , जो जन्म के समय पूर्वी क्षितिज पर जन्म स्थान पर उदय हो रही होती है .
इसमें वह राशि होती है , जो जन्म के समय पूर्वी क्षितिज पर जन्म स्थान पर उदय हो रही होती है .
इसमें जन्म की बातें , जन्म की जाति , शरीर का रंग , शरीर का कद . सिर , अपना आपा , सम्पूर्ण शरीर , आयु , रोग , यश एवं प्रतिष्ठा , उन्नति , धन , दिमाग आदि का विचार किया जाता है .
द्वितीय- भाव __ धन-भाव
इससे धन , कुटुंब , माता के बड़े भाई- बहन , वाणी - मुख . मारक - विचार , राज - पुत्र , राज्य - सभा , आँख आदि का विचार किया जाता है.
तृतीय - भाव __ श्रम- भाव
इसको भात्रि या सहज - भाव कहते हैं , इससे छोटे-भाई -बहन , मित्र , पड़ौसी , छोटी यात्रा , अपना आपा , बाहु , सांस की नली , साहस , श्रम इत्यादि का विचार किया जाता है .
चतुर्थ-भाव __ मन , इच्छा , रूचि वेदना
इसको माता का भाव भी कहते हैं . इससे जन्म-भूमि , रहने का मकान ( RESIDENCE ) , जायदाद , कृषि , पाताल , जनता , वाहन ( CONVEYNENCE ) इत्यादि का विचार किया जाता है .
पंचम- भाव _ बुद्धि , सन्तान
इसको पुत्र-भाव भी कहते हैं . इससे सन्तान , गर्भ , प्रतिभा , बुद्धि , इष्टदेव , प्रतियोगी परीक्षा , सट्टे का व्यापार , भाग्य , पिता का भाग्य , किसी के प्रेम में फंसना , बड़ी बहन का पति , पेट , ह्रदय आदि का विचार किया जाता है .
षष्ठ - भाव __ नीति , शत्रु , रोग , ऋण
यह नीति एवं व्यावहारिक ज्ञान का भाव है . इसको शत्रु-भाव भी कहते हैं . इससे शत्रु , क्षत ( चोट-घाव ) , ऋण , रकावट , अभाव , मामा , अंतड़ियाँ , कारागार , म्लेच्छ , अन्यत्व आदि का विचार किया जाता है .
यह नीति एवं व्यावहारिक ज्ञान का भाव है . इसको शत्रु-भाव भी कहते हैं . इससे शत्रु , क्षत ( चोट-घाव ) , ऋण , रकावट , अभाव , मामा , अंतड़ियाँ , कारागार , म्लेच्छ , अन्यत्व आदि का विचार किया जाता है .
सप्तम - भाव __ जाया या स्त्री , वीर्य
इस भाव से स्त्री , कामवासना , वीर्य , पति , मूत्रेन्द्रिय , प्रयत्न , शूरता , व्यापार , यात्रा आदि का विचार किया जाता है .
अष्टम - भाव ___ आयु , मृत्यु
इसको आयु या मृत्यु भाव कहते हैं . इससे मृत्यु के कारण , गम्भीर बीमारी , विदेश , महा कष्ट , नाश , पुरातत्त्व , पाप , अंडकोष , बड़े मामा की पत्नी आदि पर विचार किया जाता है .
नवम- भाव ___ धर्म या भाग्य
इसको भाग्य या धर्म भाव कहत हैं . इससे भाग्य , धर्म का विचार किया जाता है . इसमें व्यवसाय , उन्नति , पिता , शुभ कर्म , पुत्र , उच्च विद्या , अध्यात्म - योग के साथ-साथ नितम्ब , छोटे भाई की पत्नी , छोटी बहन का पति , पत्नी का छोटा भाई , तप , उच्च विचार आदि का विचार किया जाता है .
दशम- भाव__ धार्मिक- कार्य
परन्तु धर्म धार्मिक भाव के बिना टिक नहीं सकता . यही कारण है कि दशम - भाव से ' धार्मिक कर्म ' का विचार किया जाता है . इन्हीं धार्मिक कार्यों ( MERITORIOUS DEEDS ) धर्म की महत्ता बढ़ती है . इसके अंतर्गत यज्ञीय कर्म , सेवा-कार्य , वर्णाश्रम उचित कर्म , परोपकार आदि आते हैं .
ता है .
एकादश - भाव __ लाभ या निष्काम कर्म
यह लाभ भाव है . इससे धन की प्राप्ति , बड़ा भाई - बहिन , ऊंचाई , टांग का निचला भाग , पुत्रवधू , दामाद , चोट-रोग आदि का विचार किया जाता है .
द्वादश - भाव __ मोक्ष या व्यय एवं अपव्यय
इसको मोक्ष - भाव के साथ - साथ संसारिकता में व्यय या अपव्यय का भाव कहते हैं . इसमें आँख , त्याग , मामी , नींद , कम-सुख , कारागार एवं प्रथकता आदि पर विचार दशम - भाव __ कर्म या धार्मिक कार्य
इसको कर्म या धार्मिक भाव कहते हैं . इससे मनुष्य के अच्छे-बुरे , कामधंधा , पैत्रिक सम्पत्ति , राज्य , राजा का यश, मान -सम्मान ,प्रशंसा आदि पर विचार किया जाकिया जाता है .*******
इसको कर्म या धार्मिक भाव कहते हैं . इससे मनुष्य के अच्छे-बुरे , कामधंधा , पैत्रिक सम्पत्ति , राज्य , राजा का यश, मान -सम्मान ,प्रशंसा आदि पर विचार किया जाकिया जाता है .*******
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'6-- ' भाव ' का स्वरूप
प्रथम - भाव-- जन्म या रूप --- जन्म मनुष्य का जन्म उसके लिए इस संसार में सबसे पहली घटना है . जीवन की शेष क्रियाएं तथा घटनाएँ ' जन्म ' के अनन्तर ही होती है . अत: ' जन्म ' को प्रथम भाव के साथ जोड़ना ऋषियों की तार्किक प्रतिभा का परिणाम था . वास्तविकता यह है कि प्रत्येक उस वस्तु , अंग , स्थिति , पदार्थ का ; जो जन्म से ही मनुष्य को प्राप्त हो जाती है , उसके जन्म भाव अर्थात लग्न भाव अथवा पहले भाव से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है . और उसका विवेचन जन्म भाव से ही किया जाता है . उदाहरण के लिए मनुष्य को उसका रंग-रूप (FEATURES ) , कद ( STRUCTURE ) उसकी जाति _ ब्राह्मण , क्षत्रिय आदि , जन्म - स्थान , जन्म का समय आदि सब बातें जन्म में प्राथमिकता ( TOP PRIORITY ) रखती हैं . अत: इन सब का विचार मनुष्य के शरीर के साथ - साथ सबसे पहले भाव अर्थात जन्म-भाव से ही किया जाता है .
द्वितीय - भाव __ भोग्य या धन __जब किसी जातक को जन्म मिल चुकता है तो सबसे आवश्यक बात जो उसके जीवन - मरण से सम्बन्ध रखती है , वह है उसके लिए भोज्य अथवा भोग्य सामग्री . इससे दूसरे भाव का विचार किया जाता है . भोग्य - सामग्री से सम्बन्ध होने के कारण दूसरे भाव को ' धन - भाव ' भी कहते हैं .
तीसरा भाव _ बाहु या श्रम __
तीसरा भाव _ बाहु या श्रम __
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार द्वितीय भाव से सम्बन्ध रखने वल्र खाद्य पदार्थ आदि शरीर - यात्रा अर्थात प्रथम भाव के लिए अनिवार्य हैं , उसी प्रकार तृतीय भाव ' श्रम ' द्वितीय भाव के 'धन ' की उत्पत्ति एवं स्थिरता के लिए अनिवार्य है . काम तो बहुधा हाथों से ही अथवा बाहुबल से ही होता है , अत: तृतीय भाव बाहु का है . यही स्थान भाइयों का भी है . क्योंकि भाई को बाहु माना गया है . इस प्रकार तृतीय भाव श्रम का भाव नैसर्गिक विकास-क्रम से सिद्ध होता है .
चतुर्थ _ भाव _ इच्छा , रूचि और वेदना __ जब तक किसी कार्य में मनुष्य की रूचि अथवा इच्छा न हो तब तक उस कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती . कहा भी है _ ' WHERE THERE IS WILL THERE IS WAY ' अर्थात जहाँ इच्छा -शक्ति होती है वहां कार्य-निष्पन्न होता है . अत: चतुर्थ - भाव का ' इच्छा , रूचि , वेदना ' ( WILL , DESIRES , EMOTIONS ) आदि का प्रतिनिधित्व करके मन-रूप होना ही विकास-क्रम में उपयुक्त ही है ; क्योंकि इस गुण-विनियोग द्वारा तृतीय स्थान को सहायता मिलती है और मनुष्य ऊंचा उठता चला जाता है .
पंचम -भाव _ बुद्धि __
प्रथम - भाव शरीर के लिए दितीय -भाव धन- पदार्थ होते हुवे भी और उसके लिए तृतीय-भाव श्रम करते हुवे भी एवं इस श्रम के लिए चतुर्थ - भाव रूचि व मानसिक शक्ति रखता हुवा भी मनुष्य जीवन में विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता . यदि उसको अपना प्राप्तव्य उद्देश्य व गन्तव्य स्थान का ज्ञान न हो . अत: बुद्धि-तत्व उपरोक्त धन, श्रम , रूचि तत्व से भी अधिक मूल्यवान , आवश्यक व मौलिक है .
प्रथम - भाव शरीर के लिए दितीय -भाव धन- पदार्थ होते हुवे भी और उसके लिए तृतीय-भाव श्रम करते हुवे भी एवं इस श्रम के लिए चतुर्थ - भाव रूचि व मानसिक शक्ति रखता हुवा भी मनुष्य जीवन में विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता . यदि उसको अपना प्राप्तव्य उद्देश्य व गन्तव्य स्थान का ज्ञान न हो . अत: बुद्धि-तत्व उपरोक्त धन, श्रम , रूचि तत्व से भी अधिक मूल्यवान , आवश्यक व मौलिक है .
बिना बुद्धि में निश्चय हुवे मानसिक प्रवृत्ति नहीं हो सकती . बिना पंचम भाव- बुद्धि के चतुर्थ-भाव मन-रूचि का काम नहीं चलता . इस प्रकार ' बुद्धि , विचार , मंत्रणा ' तथा तदनुरूप बातों के लिए विद्या - परीक्षाएं ( COMPETETIVE EXAMS ) आदि का पंचम-भाव से सम्बन्ध होना विकास-क्रम में उपयुक्त ही है .
षष्ठ -भाव _ क्रियात्मक -ज्ञान या नीति __ यदि जातक के पास अच्छा शरीर , खूब धन , पर्याप्त श्रम , स्वस्थ मन एवं तीक्ष्ण बुद्धि सभी कुछ हो , परन्तु उसे संसार का क्रियात्मक अनुभव ( PRACTICAL EXPERIENCE AND KNOLEDGE ) न हो तो उसे सफलता प्राप्त नहीं हो सकती . नीति का ज्ञान उसके लिए बहुत आवश्यक है . यदि संसार की प्रति-स्पर्धा या होड़ से , शत्रुता से , अड़चनों से , विरोधी शक्तियों से वह व्यक्ति अनभिज्ञ है , तो कहना पड़ेगा कि उसका विकास अभी सैद्धांतिक ( THEORETICAL ) ही है , व्यावहारिक नहीं . अत: आपत्तियों , अड़चनों , विरोधी तत्त्वों का बुद्धि आदि के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है .
जब मनुष्य क्रियात्मक रूप से संसार में कठिनाइयों का सामना करता है तो तभी विकास में उत्तीर्ण समझा जाता है . अत; अड़चनों . कठिनाइयों , शत्रुता , रोग , ऋण आदि को छठे स्थान संयुक्त करना उचित ही प्रतीत होता है . वास्तव में नीति के बिना गति भी नहीं है .
सप्तम- भाव _ वीर्य एवं स्त्री भाव
मनुष्य शत्रुता , अडचनों , रुकावटों को तभी जीत सकता है , जबकि उसमें इच्छा , विद्या आदि के साथ-साथ वीर्य की शक्ति भी हो . नपुंसक व्यक्ति इच्छा , विद्या आदि का क्या प्रयोग करेगा ? और कैसे शत्रुओं आदि पर विजय प्राप्त करेगा ? यही कारण है कि विकास-क्रम में षष्ठ शत्रु स्थान भाव के अनन्तर वीर्य सप्तम भाव को रखा गया है .
वीर्य से सम्बन्ध वस्तुएं जैसे _ स्त्री , गुप्तेन्द्रिय , गुप्तेन्द्रिय का कार्य ( SEX ACTION )इत्यादि भी इसी सप्तम भाव से देखे जाते हैं .
वीर्य से सम्बन्ध वस्तुएं जैसे _ स्त्री , गुप्तेन्द्रिय , गुप्तेन्द्रिय का कार्य ( SEX ACTION )इत्यादि भी इसी सप्तम भाव से देखे जाते हैं .
अष्टम-भाव _ आयु आदि
अब मान लो कि किसी व्यक्ति में वीर्य , अनुभव , विद्या , रूचि , परिश्रम , धन . स्वास्थ्य आदि सभी गुण हैं , परन्तु उसे शीघ्र ही मर जाना है तो वे सारे गुण उसके लिए किस काम के ? वह फिर जीवन के आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकेगा .
यही कारण है कि सप्तम भाव के अनन्तर अष्टम भाव में आयु से सम्बद्ध मरण आदि विधि का विचार किया जाता है .
नवम- भाव _ धर्म , पुण्य एवं भाग्य
' बड़े भाग मानुष तन पावा ' अर्थात मनुष्य शरीर महान भाग्य के बिना प्राप्त नहीं होता . विशेष रूप से यह शरीर जो विकास - साधना में जुटकर अपना तथा आत्मा का कल्याण चाहता है तो यह बड़े पुण्य का परिणाम है . अत: भाग्य तथा पुण्यकर्म एवं धर्म का सम्बन्ध नवम भाव से युक्तियुक्त ही है .
दशम- भाव__ धार्मिक- कार्य
परन्तु धर्म धार्मिक भाव के बिना टिक नहीं सकता . यही कारण है कि दशम - भाव से ' धार्मिक कर्म ' का विचार किया जाता है . इन्हीं धार्मिक कार्यों ( MERITORIOUS DEEDS ) धर्म की महत्ता बढ़ती है . इसके अंतर्गत यज्ञीय कर्म , सेवा-कार्य , वर्णाश्रम उचित कर्म , परोपकार आदि आते हैं .
एकादश - भाव __ उपचय या निष्काम कर्म
स्पष्ट है कि मोक्ष के लिए निष्काम कर्म ही उपयुक्त हैं . सकाम कर्म तो स्वर्ग आदि नश्वर लोकों को प्राप्त करा सकते हैं . शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते . अत: वह शुभ कार्य जो हमको सहज भाव से प्राप्त हो और जिसका उपचय हो चुका हो . अर्थात जो निष्काम कर्म हमारे इतने समीप हों कि हम नदियों - वृक्षों , वायु - प्रकाश की भांति उसे स्वाभाविक रूप से करें , बिना किसी निजी स्वार्थ के उस शुभ कार्य को एकादश परम उपचय भाव से सम्बद्ध किया गया है .
द्वादश - भाव __ मोक्ष
जब सब निष्काम कर्मों का उपचय एकादश- भाव में हो जाता है तो अगला पक्ष मोक्ष ही रह जाता है .
जब सब निष्काम कर्मों का उपचय एकादश- भाव में हो जाता है तो अगला पक्ष मोक्ष ही रह जाता है .
सोमवार, 11 जुलाई 2011
5 --नक्षत्रों का स्वामी ग्रह
अस्तु , नीचे नक्षत्रों के स्वामी दिए गये हैं , ताकि पाठक यह समझ जाएँ कि किस नक्षत्र का किस ग्रह के अनुरूप अथवा अनुकूल फल होता है __
- उत्तराभाद्रपद ---
- मूला ---- केतु
- पूर्वाषाढ़ा ---- शुक्र
- उत्तराषाढ़ा ---- सूर्य
- श्रवण ----- चन्द्र
- रोहिणी ---- चन्द्र
- मृगशिरा ---- मंगल
- आर्द्रा ---- राहु
- पुनर्वसु ---- गुरु
- पुष्य ---- शनि
- अश्विनी ------ केतु
- भरणी ----- शुक्र
- कृतिका ------सूर्य
- आश्लेषा ---- बुध
- मघा ---- केतु
- पूर्वफाल्गुनी ---- शुक्र
- उत्तरफाल्गुनी ---- सूर्य
- हस्त ------ चन्द्र
- चित्रा ----- मंगल
- स्वाती --- राहु
- विशाखा ---- गुरु
- अनुराधा ---- शनि
- ज्येष्ठा --- बुध
- घनिष्ठा --- मंगल
- शतभिषा --- राहु
- पूर्वाभाद्रपद ---- गुरु
- - शनि
- रेवती ---- बुध .
सूर्य --- 3 , 12 , 21
चन्द्र --- 4 , 13 , 22
मंगल --- 5 , 14 , 23
बुध ---- 9 , 18 , 27
गुरु ---- 7 , 16 , 25
शुक्र ---- 2 , 11 , 20
शनि ---- 8 , 17 , 26
राहु ---- 6 , 15 , 24
केतु ---- 1 , 10 , 19 .
4-- ग्रह और उसके कारकत्व
नव ग्रहों में से प्रत्येक ग्रह संसार की वस्तुओं , जीवों , स्थितियों , संस्थाओं का कोई न कोई अंश अपने अंदर लिए हुवे है . अत: प्रत्येक ग्रह किन्हीं विशेष गुण-दोषों का प्रतिनिधित्व करता है और मनुष्य पर अपने प्रभाव द्वारा उसके अपने ही गुण-दोषों के अनुरूप बना देता है . इस तथ्य का वर्गीकरण करते हुवे हमारे ऋषियों ने इस सत्य को इस प्रकार व्यक्त किया कि अमुक ग्रह अमुक ' गुण ' , 'अवस्था ' , ' रंग ' , ' दिशा ' , 'धातु ' , ' अंग ' आदि का कारक है . इस कारकत्व का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार है _
- सूर्य __ आत्मा , पिता , राजा , हड्डी , आँख , ह्रदय , पेट , धनाड्य लोग , आग , उजाला , राज्य , नारंगी रंग , माणिक और पूर्व-दिशा .
- चन्द्र __ मन , माता , रानी , रक्त , आँख . फेफड़े , छाती , जनता , स्मरण शक्ति , आवेग तथा कामनाएं ( EMOTIONS AND DESIRES ) , पानी , श्वेत रंग , चांदी , मोती और उत्तर -पश्चिम दिशा .3 . मंगल __ वीरता , पुरुषार्थ , छोटे सगे भाई , रक्षा-विभाग , पट्ठे , सिर , अंडकोष , चोरी , क्षत , चातुर्य , हड्डी का आंतरिक भाग मज्जा ( MARROW OF THE BONE ) , हिंसा-प्रियता , मूंगा और दक्षिण दिशा .4 . बुध __ वाणी , बालक , त्वचा , व्यापारी , साँस की नली , अंतड़ियाँ , हरा रंग , मामा , बुद्धि-चेतना , तीनों धातु , मिश्रित वस्तु , खेल-कूद , हंसी - मजाक , नपुंसकत्व , कलई धातु , लिखना-पढ़ना और उत्तर दिशा .5 . बृहस्पति __ ज्ञान -गौरव , बडप्पन , चर्बी , जिगर ( LIVER ) , पीला रंग , बेटा , बड़ा सगा भाई , धन-दौलत , स्त्री की कुंडली में उसका पति , पैर , नितम्ब , राज्य कृपा , वायु , पुखराज और उत्तर -पूर्वी दिशा .6 . शुक्र __ स्त्री , वीर्य , मुख , गला , गुप्तेन्द्रिय , पुरुषार्थ , काम-वासना , बढ़िया वस्तु , बढ़िया पसंद ( refined taste ) , प्रेम , संगीत , भागीदारी , जल , हीरा और दक्षिण-पूर्व दिशा .7 . शनि __ स्त्रीलिंग , ठंडक , नपुंसकत्व , पत्थर , नौकर , नीच , श्रम , टांग का बीच वाला तथा निचला भाग , रोग , अंधकार , रकावट , पृथकता , विष , दीर्घ प्रभाव , अल्पगति , कर्कश वाणी , बैरागी , योगी , दार्शनिक , वायु-स्नायु - अभावात्मक , लोहा , पेट्रोल , चमडा व तेल तथा काला रंग .8. राहु __ शरीर के अवयवों को छोड़कर प्राय: वे सब गुण और दोष राहु में हैं , जो कि शनि में पाए जाते हैं . इसीलिए ' शनिवत राहु ' कहा गया है . नीलम .
रविवार, 10 जुलाई 2011
3--' ग्रह ' में राहु और केतु
हमारे ऋषियों और मुनियों की दिव्य सूझ-बूझ और क्रियात्मक पर्यवेक्षण ( PRACTICAL- OBSERVETION ) ने यह खोज निकाला कि राहु और केतु , जो यद्यपि सूर्य द्वारा बनाई गयी पृथ्वी की छाया-मात्र हैं और कोई पिंडात्मक या भौतिक ( MATERIAL ) वस्तु नहीं है . तो भी संसार में उत्पन्न जीवों तथा पदार्थों पर ये राहु और केतु बहुत गंभीर , दीर्घव्यापी आवश्यक और निश्चित प्रभाव डालते हैं . इनके इस प्रभाव को देखकर राहु और केतु को भी ' ग्रहों ' की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया गया है ; यद्यपि उनका अस्तित्व छाया-मात्र ही है .
ऋषियों की यह खोज ज्योतिष में उतना ही महत्त्व रखती है , जितना कि उनकी शून्य ( ZERO ) की खोज गणित -शास्त्र में रखती है . छाया अथवा शून्य के प्रभाव को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता . आज के वैज्ञानिक युग में प्रयोगशालाओं में प्रयोग द्वारा यह तथ्य सिद्ध हो चुका है कि ' छाया ' भी अपना एक परिणाम रखती है , चाहे वह दुष्परिणाम ही क्यों न हो ? क्योंकि देखा गया है कि छाया में पौधे , वनस्पति आदि जीवन रूपी धूप के न मिलने के कारण विसित नहीं हो सकते . इसी प्रकार राहु तथा केतु का प्रभाव भी बहुत अंशों में नकारात्मक , जीवन-शून्य , मारक आदि ही सिद्ध हुवा है .
इस प्रकार ग्रह संख्या में 9 हुवे . हर्शल ( HERSCHEL ) , प्लूटो ( pluto ) तथा नेपच्यून यह तीनों ग्रह आधुनिक खोज के परिणाम हैं . सूर्य के इर्द-गिर्द घूमने के कारण इनको भी ' ग्रह ' ही कहा गया है , परन्तु ये तीन ग्रह पृथ्वी से इतनी दूर हैं कि मनुष्य-जीवन के अल्प वर्षों को दृष्टि में रखते हुवे और इन तीनों की अति धीमी गति को देखते हुवे , इनके प्रभाव का कोई क्रियात्मक लाभ नहीं उठाया जा सकता . सम्भवतया इसी कारण हमारे ऋषियों ने ग्रहों में इन तीनों को सम्मिलित नहीं किया था . वे ऋषि 9 ग्रहों के आधार पर ही ठीक-ठीक भविष्यवाणी करने और चमत्कारिक फल कहने में समर्थ रहे .
२-प्रकृति के स्वरूप के चार प्रमुख भाग
हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने प्रकृति के उन गुण-दोषों को देखने के लिए प्रकृति का गंभीर अध्ययन प्रारम्भ किया . तो उस अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने प्रकृति के स्वरूप के चार भाग प्रमुख रूप से किये . उनका कहना है कि मनुष्य के गुण-दोष इन्हीं चार भागों के गुण-दोषों के प्रतिरूप होते हैं . वे चार विभाग निम्न प्रकार हैं _ ग्रह , राशि , नक्षत्र और भाव .
१- ग्रह _ ' ग्रह ' ( PLANETS ) द्यु-लोक के उन पिंडों( BODIES ) को कहते हैं , जो की सूर्य के चारों ओर घूम रहे हैं . उर्दू में इनको ' सियारा ' कहते हैं . चन्द्र ( MOON ) , मंगल ( MARS ) , बुध ( MERCURY ) , गुरु अथवा बृहस्पति ( JUPITOR ) , शुक्र ( venus ) तथा शनि ( SATURN ) ये छः ग्रह हैं . सूर्य जिसकी ये सब ग्रह प्रदक्षिणा करते हैं . वास्तव में सूर्य ग्रह नहीं , अपितु सितारा ( STAR ) है . ग्रह ( सियारे ) में यह अंतर है कि ग्रह या सियारा ( planet ) तो तारे ( star ) के चारों ओर घूमते हैं , परन्तु तारा ( STAR ) अपने स्थान पर स्थिर प्राय: रहता है .
फिर भी , क्योंकि पृथ्वी की अपनी कक्षा पर गति के कारण सूर्य में गति प्रतीत हो रही है . और फलित ज्योतिष में प्रतीति का भी एक विशेष महत्त्व है . प्रतीति के महत्त्व के कारण फलित ज्योतिष के आचार्यों ने सूर्य को भी एक ग्रह ही माना है . इस प्रकार सूर्य को मिलाकर सात ग्रह हो जाते हैं .
२- राशि _ ऋषि-मुनियों ने जब आकाश में विचरने वाले ग्रहों के पथ ( PATH ) का अध्ययन किया तो उन्होंने देखा कि यह पथ अंडाकार दीर्घ अंड वृत्त-आकार है ( ELLIPSE ) है और अपनी एक विशिष्ट स्थिति रखता है .
ऋषियों ने यह भी देखा कि करोड़ों -अरबों नक्षत्र-मंडलों का भी इस पथ पर प्रभाव है . क्योंकि ग्रह-पथ ( ZODIAC ) भी स्थिर है और उस पर प्रभाव डालने वाले नक्षत्र-समूह भी क्रियात्मक रूप से स्थिर हैं . अत: ऋषियों ने यह निष्कर्ष निकाला कि ग्रहपथ का प्रत्येक विभाग अपना एक स्थिर एवं विशिष्ट प्रभाव रखता है . अब उनके सामने उस प्रभाव के वर्गीकरण का प्रश्न उपस्थित हुवा तो ग्रहों का वर्गीकरण ( CLASSIFICATION ) और उनके विशिष्ट गुण-दोष तो उनके सामने थे ही . ग्रहों के कारकत्व का तब उन्हें ज्ञान हो ही चुका था _ उन्होंने उस कारकत्व का लाभ उठाकर राशिपथ के भिन्न-भिन्न भागों को विभिन्न ग्रहों के गुणों के आधार पर वर्गीकरण कर डाला और देखा कि इस प्रकार राशिपथ के बारह भाग किये जा सकते हैं .
१२ बारह राशियों के नाम स्थिर अंक के अनुसार निम्न प्रकार हैं _
- मेष ----- स्वामी ग्रह ___ मंगल ; भाव __ रूप .
- वृष----- स्वामी ग्रह ___ शुक्र ; भाव ___ भोग्य.
- मिथुन ----- स्वामी ग्रह ____ बुध ; भाव ____ श्रम .
- कर्क ------- स्वामी ग्रह ____ चन्द्र ; भाव ____ मन .
- सिंह ------ स्वामी ग्रह ____ सूर्य ; भाव ____ बुद्धि .
- कन्या ----- स्वामी ग्रह ____ बुध ; भाव ___ नीति .
- तुला ------ स्वामी ग्रह ___ शुक्र ; भाव ____ शक्ति .
- वृश्चिक ------ स्वामी ग्रह ___ मंगल ; भाव ___ आयु .
- धनु ------- स्वामी ग्रह ____ गुरु ; भाव ___ धर्म .
- मकर ----- स्वामी ग्रह ___ शनि ; भाव ___ धार्मिक कार्य .
- कुम्भ ----- स्वामी ग्रह ___ शनि ; भाव ____ निष्काम कर्म .
- मीन ----- स्वामी ग्रह ___ गुरु ; भाव ___ मोक्ष .
5 _सिंह -- सूर्य
4 _ चन्द्र
1 , 8 _ मंगल
3 , 6 _बुध
9 ,12 _ गुरु
2 , 7 _ शुक्र
10 , 11 _ शनि
3 . नक्षत्र
जन्म लेने वाले व्यक्ति पर राशियों के प्रभाव का वर्गीकरण ग्रहों के स्वरूप के अनुकूल करने के अनन्तर हमारे ऋषियों की दृष्टि और अधिक सूक्ष्म तथ्य पर पहुंची . उन्होंने खोज निकाला कि यदि आकाश में राशि-पथ के 12 भाग न कर उसके 27 भाग किये जाएँ तो एक-एक भाग 360 / 27 = 13 .1 / 3 अंश का होगा . उन्होंने इस विशिष्ट अंश को ' नक्षत्र ' का नाम दिया . राशि और नक्षत्र में अंतर यही है कि राशि 30 * की होती है , जबकि नक्षत्र 13 . 1 / 3 * का होता है . अर्थात राशि से छोटा एवं सूक्ष्म होता है .
जिस प्रकार राशियों के स्वरूप और प्रभाव को ग्रहों के स्वरूप और प्रभाव की सहायता से व्यक्त किया गया ; उसी प्रकार नक्षत्रों से भी जो स्थायी गुण-दोष उनकी दृष्टि में आये , उनका वर्गीकरण भी उन्होंने यह कहकर कर दिया कि अमुक नक्षत्र का स्वामी अमुक ग्रह है . अर्थात अमुक नक्षत्र अमुक-अमुक प्रकार के ग्रह के गुण-दोष अपने में रखता है . संसार में पाए जाने गुणों तथा दोषों के बाहुल्य के कारण ; ग्रहों द्वारा गुणों के वर्गीकरण बढ़ कर और अन्य प्रतीकात्मक ( SYMBOLIC ) साधन नहीं हो सकता था .
4 . _ भाव
ग्रह , राशि और नक्षत्र के विवरण के अनंतर अब भावों के सम्बन्ध में समझना आवश्यक है . जैसे राशिपथ में 12 राशियाँ हैं ; वैसे ही पृथ्वी के बारह कल्पित भाग जन्म लग्न के आधार पर किये गये हैं . इसमें से प्रत्येक भाव भी ग्रहों की भांति संसार के प्रत्येक क्षेत्र में किसी न किसी वस्तु , गुण , धातु इत्यादि का प्रतिनिधित्व करता है . बारह भावों की कल्पना भी सहज रूप से एक योग - शक्ति का ही चमत्कार है . इस कल्पना के मूल में सृष्टि के विकास के और mnushy की उत्तरोत्तर उन्नति का ही रहस्य छिपा हुवा है .
शनिवार, 9 जुलाई 2011
1 ज्योतिष के मूल सिद्धांत 1 ज्योतिष के मूल सिद्धांत
' यतपिंडे तद ब्रह्मांडे ' ज्योतिष का मूल सिद्धांत है . कोई भी वस्तु चाहे स्थावर हो या जंगम , इस विस्तृत ब्रह्माण्ड में , जहाँ निज शक्ति अनुसार दूसरे पदार्थों पर अपना प्रभाव डाल रही है , वहां स्वयं भी अन्य वस्तुओं से प्रभावित हुवे बिना नहीं रह सकती प्रत्येक वस्तु पर समय द्वारा ब्रह्माण्ड का प्रभाव पाया जाता है . अर्थात जिस क्षण में उत्पत्ति अथवा कर्म होता है , उसी क्षण के गुण-दोषों को वह जातक अथवा कार्य लिए होता है . डा. जुंग के अनुसार _' what evar is born or done ai this moment , has the qualities of this moment . अत: वस्तु का स्वरूप ब्रह्मांड के स्वरूप के अनुरूप ही होता है . तभी तो ' यतपिंडे तद ब्रह्मांडे ' का सिद्धांत ज्योतिष तथा अध्यात्म दोनों द्वारा स्वीकृत हुवा है .
जब कोई जीव माँ के उदर से बाहर आता है तो उसी क्षण उस पर ब्रह्मांड के प्रभाव की छाप पड़ जाती है . ठीक उसी प्रकार जिसप्रकार कि फोटोग्राफर की फिल्म पर क्षण भर में , दृश्य अंकित हो जाता है ओर वह व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में ठीक वह गुण जो गुण-दोष कि उसके जन्म के समय प्रकृति ( nature) में उस स्थान पर पाए जाते हैं कि जिस स्थान पर उसका जन्म हुवा है .
इससे स्पष्ट है कि ' पेट से बाहर आने का क्षण ही ' जन्म-समय तथा 'इष्ट ' आदि ज्योतिष का आधार होता है. अब यदि इस ' जन्म-क्षण ' के प्रकृति के गुण-दोष किसी प्रकार ज्ञात किये जा सकें , तो हमें जातक के गुण-दोष का भी पता चल जायेगा . वे गुण-दोष उस व्यक्ति में नेगेटिव फिल्म की भांति बीज रूप में रहेंगे ओर अनुकूल वातावरण पाकर , अनुकूल समय पर , क्रमश: प्रकट होंगे . जन्म आदि समय में बीज रूप में डाले हुवे प्रकृति के उन गुण-दोषों का विस्तृत अध्ययन ज्योतिष-शास्त्र का दिव्य एवं अनुपम विषय है , जो पूर्णत: चमत्कार से युक्त है .
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