मंगलवार, 12 जुलाई 2011

'6-- ' भाव ' का स्वरूप

6-- ' भाव ' का स्वरूप

                                              


प्रथम -  भाव-- जन्म या रूप   --- जन्म  मनुष्य का जन्म उसके लिए इस संसार में सबसे पहली घटना है . जीवन की शेष क्रियाएं तथा घटनाएँ ' जन्म ' के अनन्तर ही होती है . अत: ' जन्म ' को प्रथम भाव के साथ जोड़ना ऋषियों की तार्किक प्रतिभा का परिणाम था . वास्तविकता यह है कि प्रत्येक उस वस्तु , अंग , स्थिति , पदार्थ का ; जो जन्म से ही मनुष्य को प्राप्त हो जाती है , उसके जन्म भाव अर्थात लग्न भाव अथवा पहले भाव से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है . और उसका विवेचन जन्म भाव से ही किया जाता है . उदाहरण के लिए मनुष्य को उसका रंग-रूप (FEATURES ) , कद ( STRUCTURE )  उसकी जाति _ ब्राह्मण , क्षत्रिय आदि , जन्म - स्थान , जन्म का समय आदि सब बातें जन्म में प्राथमिकता ( TOP PRIORITY ) रखती  हैं . अत: इन सब का विचार मनुष्य के शरीर के साथ - साथ सबसे पहले भाव अर्थात जन्म-भाव से ही किया जाता है .


द्वितीय - भाव __ भोग्य या धन  __जब किसी जातक को जन्म मिल चुकता है तो सबसे आवश्यक बात जो उसके जीवन - मरण से सम्बन्ध रखती है , वह है उसके लिए भोज्य अथवा भोग्य सामग्री .  इससे दूसरे भाव का विचार किया जाता है . भोग्य - सामग्री से सम्बन्ध होने के कारण दूसरे भाव को ' धन - भाव ' भी कहते हैं .  


तीसरा भाव _ बाहु या श्रम __
 
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार द्वितीय भाव से सम्बन्ध रखने वल्र खाद्य पदार्थ आदि शरीर - यात्रा अर्थात प्रथम भाव के लिए अनिवार्य हैं , उसी प्रकार तृतीय भाव ' श्रम ' द्वितीय भाव के 'धन ' की उत्पत्ति एवं स्थिरता के लिए अनिवार्य है . काम तो बहुधा हाथों से ही अथवा बाहुबल से ही होता है , अत: तृतीय भाव बाहु का है . यही स्थान भाइयों का भी है . क्योंकि भाई को बाहु माना गया है . इस प्रकार तृतीय भाव श्रम का भाव नैसर्गिक विकास-क्रम से सिद्ध होता है .

चतुर्थ _ भाव _  इच्छा , रूचि और वेदना __  जब तक किसी कार्य में मनुष्य की रूचि अथवा इच्छा न हो तब तक उस कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती . कहा भी है _ ' WHERE THERE IS WILL THERE IS WAY ' अर्थात जहाँ इच्छा -शक्ति होती है वहां कार्य-निष्पन्न होता है . अत: चतुर्थ - भाव का ' इच्छा , रूचि , वेदना ' ( WILL , DESIRES , EMOTIONS ) आदि का प्रतिनिधित्व करके मन-रूप होना ही विकास-क्रम में उपयुक्त ही है ; क्योंकि इस गुण-विनियोग द्वारा तृतीय स्थान को सहायता मिलती है और मनुष्य ऊंचा उठता चला जाता है . 


पंचम -भाव _ बुद्धि __ 
 प्रथम - भाव शरीर के लिए दितीय -भाव धन- पदार्थ होते हुवे भी और उसके लिए तृतीय-भाव श्रम करते हुवे भी एवं इस श्रम के लिए चतुर्थ - भाव रूचि व मानसिक शक्ति रखता हुवा भी मनुष्य जीवन में विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकता . यदि उसको अपना प्राप्तव्य उद्देश्य व गन्तव्य स्थान का ज्ञान न हो . अत: बुद्धि-तत्व उपरोक्त धन, श्रम , रूचि तत्व से भी अधिक मूल्यवान , आवश्यक व मौलिक  है . 
बिना बुद्धि में निश्चय हुवे मानसिक प्रवृत्ति नहीं हो सकती .  बिना पंचम भाव- बुद्धि के चतुर्थ-भाव मन-रूचि का काम नहीं चलता . इस प्रकार ' बुद्धि , विचार , मंत्रणा ' तथा तदनुरूप बातों के लिए विद्या - परीक्षाएं ( COMPETETIVE EXAMS ) आदि का पंचम-भाव से सम्बन्ध होना विकास-क्रम में उपयुक्त ही है .

षष्ठ -भाव _ क्रियात्मक -ज्ञान या नीति __  यदि जातक के पास अच्छा शरीर , खूब धन , पर्याप्त श्रम , स्वस्थ मन एवं तीक्ष्ण बुद्धि सभी कुछ हो , परन्तु उसे संसार का क्रियात्मक अनुभव ( PRACTICAL EXPERIENCE AND KNOLEDGE ) न  हो तो उसे सफलता प्राप्त नहीं हो सकती . नीति का ज्ञान उसके लिए बहुत आवश्यक है . यदि संसार की प्रति-स्पर्धा या होड़ से , शत्रुता से , अड़चनों से , विरोधी शक्तियों से वह व्यक्ति अनभिज्ञ है , तो कहना पड़ेगा कि उसका विकास अभी सैद्धांतिक ( THEORETICAL ) ही है , व्यावहारिक नहीं . अत: आपत्तियों , अड़चनों , विरोधी तत्त्वों का बुद्धि आदि के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान है .
जब मनुष्य क्रियात्मक रूप से संसार में कठिनाइयों का सामना करता है तो तभी विकास में उत्तीर्ण समझा जाता है . अत; अड़चनों . कठिनाइयों , शत्रुता , रोग , ऋण आदि को छठे स्थान संयुक्त करना उचित ही प्रतीत होता है . वास्तव में नीति के बिना गति भी नहीं है .

सप्तम- भाव _ वीर्य एवं स्त्री भाव
मनुष्य शत्रुता , अडचनों , रुकावटों को तभी जीत सकता है , जबकि उसमें इच्छा , विद्या आदि के साथ-साथ वीर्य की शक्ति भी हो . नपुंसक व्यक्ति इच्छा , विद्या आदि का क्या प्रयोग करेगा ? और कैसे शत्रुओं आदि पर विजय प्राप्त करेगा ? यही कारण है कि विकास-क्रम में षष्ठ शत्रु स्थान भाव के अनन्तर वीर्य सप्तम भाव को रखा गया है .
वीर्य से सम्बन्ध वस्तुएं जैसे _ स्त्री , गुप्तेन्द्रिय , गुप्तेन्द्रिय का कार्य ( SEX ACTION )इत्यादि भी इसी सप्तम भाव से देखे जाते हैं .


अष्टम-भाव _ आयु आदि 
अब मान लो कि किसी व्यक्ति में वीर्य , अनुभव ,  विद्या , रूचि ,  परिश्रम , धन . स्वास्थ्य आदि सभी गुण हैं , परन्तु उसे शीघ्र ही मर जाना है तो वे सारे गुण उसके लिए किस काम के ? वह फिर जीवन के आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकेगा . 
यही कारण है कि सप्तम भाव के अनन्तर अष्टम भाव में आयु से सम्बद्ध मरण आदि विधि का विचार किया जाता है . 

नवम- भाव _ धर्म , पुण्य एवं भाग्य 
' बड़े भाग मानुष तन पावा ' अर्थात मनुष्य शरीर महान भाग्य के बिना प्राप्त नहीं होता . विशेष रूप से यह शरीर जो विकास - साधना में जुटकर अपना तथा आत्मा का कल्याण चाहता है तो यह बड़े पुण्य का परिणाम है . अत: भाग्य तथा पुण्यकर्म एवं धर्म का सम्बन्ध नवम भाव से युक्तियुक्त ही है .
   
दशम- भाव__ धार्मिक- कार्य
परन्तु धर्म धार्मिक भाव के बिना टिक नहीं सकता . यही कारण है कि दशम - भाव से ' धार्मिक कर्म ' का विचार किया जाता है . इन्हीं धार्मिक कार्यों ( MERITORIOUS DEEDS ) धर्म की महत्ता बढ़ती है . इसके अंतर्गत यज्ञीय कर्म , सेवा-कार्य , वर्णाश्रम उचित कर्म , परोपकार आदि आते हैं .

एकादश - भाव __ उपचय या निष्काम कर्म
स्पष्ट है कि मोक्ष के लिए निष्काम कर्म ही उपयुक्त हैं . सकाम कर्म तो स्वर्ग आदि नश्वर लोकों को प्राप्त करा सकते हैं . शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते . अत: वह शुभ कार्य जो हमको सहज भाव से प्राप्त हो और जिसका उपचय हो चुका हो . अर्थात जो निष्काम कर्म हमारे इतने समीप हों कि हम नदियों - वृक्षों , वायु - प्रकाश की भांति उसे स्वाभाविक रूप से करें , बिना किसी निजी स्वार्थ के उस शुभ कार्य को एकादश परम उपचय भाव से सम्बद्ध किया गया है .

द्वादश - भाव __ मोक्ष

जब सब निष्काम कर्मों का उपचय एकादश- भाव में हो जाता है तो अगला पक्ष मोक्ष ही रह जाता है .
इस प्रकार स्पष्ट है कि ज्योतिष - शास्त्र में भाव और कुंडली का स्वरूप ' जन्म ' से लेकर ' मोक्ष ' तक मनुष्य के विकास की स्थिति है . योग - शास्त्र में कहा भी गया है _ भोग अपवर्ग अर्थम् दृश्यम ' अर्थात इस संसार में मनुष्य की स्रष्टि - कर्मों का भोग भोगने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए की गयी है .*****

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